प्रार्थना करने से अपने गुण-दोष का अहसास होता है
आचार्य दीपचंद भारद्वाज
संसार के सभी धर्मों में एक बात समान है, वह है ईश प्रार्थना। प्रार्थना किसी भी मनुष्य के जीवन के लिए एक बड़ी साधना है। जीवन में हर प्रकार की कठिनाइयां और समस्याएं आती हैं। जब हमें किसी दिशा में मार्ग नहीं सूझता तो ईश्वर से सच्ची प्रार्थना करने पर मार्गदर्शन होने लगता है।
प्रार्थना का सही स्वरूप क्या हो सकता है? जब भी कभी किसी विलक्षण समस्या का हल नहीं मिल पाता तो सच्चे मन से प्रार्थना करने पर समाधान प्राप्त होने लगता है। नई प्रार्थना, सभी श्रेष्ठ मनुष्यों ने प्रार्थना की शक्ति से जीवन की कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त की है। इसी से उनका आध्यात्मिक मार्ग भी प्रशस्त हुआ।
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प्रार्थना क्यों की जाती है?
गांधीजी का मानना था कि जैसे शरीर के लिए आहार की परम आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आत्मा के लिए आवश्यक आहार है। प्रार्थना और दैनिक निवेदन से उपासक का अभिमान नष्ट हो जाता है। मन द्रवित होने लगता है, दृष्टि बदल जाती है।
जब हृदय की ऐसी भावना हो जाती है, तब ईश्वर प्रार्थी की प्रार्थना को अवश्य सुनता है। संत-महात्माओं का यही कहना है कि सच्ची प्रार्थना वही है जिसमें हम अपने इष्ट देव के आगे सहज, सरल और अपनी आत्मा से निकले हुए उद्गार प्रकट करते हैं। प्रार्थना का कोई विशेष अवसर, स्थान या समय निश्चित नहीं है।
प्रार्थना में किस से शक्ति मांगी गई है :
आज वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जब शरीर के साथ मन भी निरोग होने का प्रयास करता है, तो हम जल्दी स्वस्थ होने लगते हैं। जीवन का प्रत्येक क्षण प्रार्थनामय हो तो जीवन से सुख दूर नहीं जा सकता।
ईश्वर से प्रार्थना करने में मन की सचाई हो तो हमें सारे शत्रु भी अपने दिखाई देने लगते हैं। सब लोग बंधु और मित्र के समान हो जाते हैं। प्रार्थना से उपजी उदार भावना विश्व मैत्री की भावना बन जाती है। ऐसा माना जाता है कि रामकृष्ण परमहंस जब प्रार्थना में भावविभोर हो जाते थे तो उनके आंसू छलक उठते थे और ऐसी दशा में कभी मूर्छित भी हो जाते थे।
प्रार्थना में ऐसी शक्ति है कि वह हमारे । दोष की वृत्ति को बदल देती है और प्रार्थी को अपने कर्म और दोष अधिक अनुभव होने लगते हैं। इससे अभिमान नहीं होता। लगने लगता है कि प्राप्त शरीर, ऐश्वर्य, संतान, पद-प्रतिष्ठा, सुख, विद्या सब उस ईश्वर के दिए हुए है।
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प्रार्थना में कैसे शक्ति मांगी गई है?
विशेष बात यह है कि जब हम प्रभु प्रदत्त पदार्थों का त्याग भावना से उपयोग करते हैं, तो अभिमान भी नहीं होता क्योंकि तब हमारे भाव सात्विक हो जाते हैं। प्रार्थना का सबसे बड़ा लाभ है परमात्मा की प्रसन्नता और कृपा।
जो कुछ है वह ईश्वर का है और उसी को समर्पित है। गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह जो कुछ करता है, खाता है, हवन करता है, दान देता है, तप करता है सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर दें। जब प्रभु की प्रसन्नता मिल गई तब फिर प्राप्त करने के लिए रह क्या जाता है। ईश्वर की कृपा मिलने से कर्म सफल हो जाते हैं।
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प्रार्थना जब एकांत भाव और भावपूर्ण हृदय से की जाती है तो सफलता मिलती है। प्रार्थना हृदय से निकली हो तो उसका प्रभाव भी आश्चर्यजनक होता है। सच्चे मन से ईश्वर की प्रार्थना करने वाला भक्त कभी चिंतित, हताश, निराश, दुखी, असमर्थ नहीं होता।
उसके व्यवहार से किसी का अहित नहीं होता। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने प्रार्थना के विषय में कहा है कि मनुष्य को अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरांत प्रार्थना करनी चाहिए, यानी अपने सभी कर्मों को पूरी निष्ठा और मनोयोग से सजग होकर करना चाहिए।