5 फर्क 5 बरसों में आए

5 बरसों में आए 5 2014 से अलग दिख रही है तस्वीर,
इस बार लहर फैक्टर नहीं


नई दिल्ली : भारत के आम चुनावों को लेकर पहले से कोई भविष्यवाणी आज तक सिर्फ इसलिए सही साबित नहीं हो सकी है क्योंकि यह अलग-अलग मिजाज वाले राज्यों का देश है। उनकी राजनीतिक पसंद-नापसंद उनके अपने खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, विश्वास और आस्था से जुड़ी होती हैं लेकिन इससे अगर यह धारणा बना ली जाए कि किसी एक राज्य का मिजाज एक सा होगा तो भी गलत होगा।



अगर आप किसी राज्य में दाखिल होते हैं तो पता चलता है कि वहां के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग राजनीतिक व्यवहार के लिए जाने जाते हैं। और उसी राज्य के जब आप किसी निर्वाचन क्षेत्र में जाते हैं तो पता चलता है कि वहां मोहल्ला, कॉलोनी या गांववार वोटर की सोच अलग-अलग है। यही वह फैक्टर हैं जिनके चलते वोटों के नतीजे आने तक दृढ़ता के साथ यह नहीं कहा जा पाता कि सरकार किसकी बनने वाली है? वोटर्स को किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने के बजाय 2014 और 2019 के फर्क को समझना ज्यादा जरूरी है।


 2014 का चुनाव लगातार 10 साल से सत्तारूढ़ यूपीए सरकार के खिलाफ था। बड़े घोटालों के कई मामले उजागर हो चुके थे, जिनमें कुछ मंत्रियों को जेल भी जाना पड़ा था और कुछ को इस्तीफा देना पड़ा था। ऐसा माहौल बन गया था जैसे भ्रष्टाचार के सिवाय कुछ हो ही नहीं रहा। इस माहौल में मोदी ताजा हवा के झोके के मानिंद सामने आए थे। वह चुनाव बीजेपी नहीं लड़ रही थी, वह मोदी लड़ रहे थे। 2019 में कांग्रेस कोई फैक्टर नहीं होगा। चुनाव हमेशा सरकारों के खिलाफ लड़ा जाता है। जाहिर सी बात है कि इस बार वोटर्स की कसौटी पर व्यक्तिगत रूप से मोदी की साख तो होगी ही, एनडीए सरकार के पांच साल का कामकाज भी होगा।


 2014 के चुनाव में बीजेपी (या यूं कहें कि मोदी) के पास न तो कुछ खाने के लिए था और न ही कुछ साबित करना था। दस साल से वह सत्ता से बाहर ही चल रही थी लेकिन इस बार खोने का भी डर होगा और अपने को साबित करने की चुनौती भी होगी। 2014 में मोदी लोकप्रियता के जिस शिखर पर पहुंच कर बीजेपी को इतने विशाल बहुमत के साथ सरकार में लाए थे अगर दोबारा सरकार नहीं बन पाती है तो यह मोदी के 'जादू' का खात्मा मान लिया जाएगा, जो बीजेपी और मोदी दोनों की भविष्य की राजनीति को मुश्किल में डाल सकता है। मोदी के लिए यह साबित करने की चुनौती होगी कि 'अच्छे दिन' का जो वायदा था, वह आए।


 2014 के चुनाव में तिकाना मुकाबला था और विपक्ष बंटा हुआ थाकांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का मुकाबला मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए से तो था ही। राज्यों में इलाकाई दलों का बहुत बड़ा हिस्सा बीजेपी और कांग्रेस दोनों से ही मुकाबिल था। इस बार बीजेपी के मुकाबले विपक्ष एकजुट हुआ है और लड़ाई सीधे मुकाबले की ओर बढ़ती दिख रही हैं। कई राज्यों में नए सियासी समीकरण बनते दिखे हैं। यूपी में एसपी- बीएसपी ने अगर मोदी के खिलाफ हाथ मिला लिया है तो बिहार में नीतीश कुमार बीजेपी के साथ हो लिए हैं लेकिन कुशवाहा और जीतन राम मांझी एनडीए से बाहर आकर महागठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। तमिलनाडु में एआईएडीएमके और पीएमके ने बीजेपी का साथ ले लिया है।


 चुनाव पहले पुलवामा कांड और उसके बाद पाकिस्तान के खिलाफ एयर स्ट्राइक से माहौल में 'राष्ट्रवाद' की'हवा' महसूस की जा रही है। यह ऐसा मुद्दा होता है, जिसके आगे तमाम दूसरे मुद्दे गौण हो जाते हैं। 2014 में भ्रष्टाचार का मुद्दा सबसे अहम था। इस मुद्दे के होने पर सत्तारूढ़ पार्टी को बेदखल करने की बात कही जाती हैं लेकिन 'राष्ट्रवाद' के मुद्दे पर किसी पार्टी को सत्ता से बेदखल करने की बात नहीं हो सकती। बीजेपी की पूरी कोशिश होगी, राष्ट्रवाद के मुद्दे को हावी होने दिया जाए और इसे अपने हाथ में रखा जाए। विपक्ष इसके असर को समझते हुए इसे हावी होने से रोकने की पूरी कोशिश में है। उसने आयोग तक से शिकायत की है।


 2014 में मोदी के खिलाफ ले देकर सिर्फ राहुल का चेहरा था, जिसे औपचारिक तौर पर घोषित भी नहीं किया गया था। इलाकाई दलों का कोई गठबंधन नहीं हुआ था, इसलिए उस खेमे से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में कोई नाम आने का सवाल ही नहीं था लेकिन इस बार ममता बनर्जी से लेकर मायावती तक के नाम विपक्ष के प्रधानमंत्री के रूप में खुलकर चर्चा में हैं। राहुल पहले से अपेक्षा बदले हैं। कुछ दिन पहले शरद पवार यह फॉर्मूला दे चुके हैं कि विपक्ष बगैर चेहरे के चुनाव लड़ेगा और नतीजे आने के बाद सीटों की संख्या के आधार पर पीएम का चुनाव होगाइस बार बीजेपी के 'प्रधानमंत्री कौन' के सवाल पर विपक्ष ज्यादा दबाव में नहीं आ रहा है।


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